Thursday, September 26, 2013

परिवर्तित मानव

तन ओर उसमें मन 
रिश्तों के डोर हजार, 
खंड खंड मे बिभाजित मन 
अपेक्षाएँ सब के भिन्न ,भिन्न।
कब ओर कैसे ?
व्यक्तित्व हो जता परिवर्तित
मानव कब दानव बन जाता है 
पहचान खूद को नहीं पाता . 
ढलान ये कैसे !
उतार के बाद फिर ऊपर 
पहुँच नहीं पाता 
मानव को कौन  दानव बनाता .
क्या पाने निकलता है 
मानवता को ही खो रोता है 
साथ चलने को रिश्ते हजार
निभाने के लिए कोई नहीं तैयार 
आप की एक एक उपेक्षा के 
लेखा जोखा होता पल मे  तैयार 
मन बार बार पर गिरता,
फिर सम्ह्ल्ता
खंड खंड मे हर रिस्ता को निभाता 
फिर आता वो अशुभ पल 
मानव हो जाता दानव 
दया,करुणा,क्षमा ,सहनशीलता 
उस से जाता हो दूर 
नयन की तरलता हो जाता विलीन
तन तो मानव ही रहता
 मन दानव बन है जीता।संगीता............
  
    

Friday, September 20, 2013

क्षमा


पानी जैसे तरल क्षमा तुम
आओ मेरे मन को तरल कर दो 
मुझे सरल कर दो 
झूठा अहम से मुक्त हो
 क्षमा मांग लू,क्षमा करू
अवनि से अंबर कितना दूर
अमृत बिन्दु बन पावस 
उन्हे करीब लाती 
रूठे मन को मैं माना लूँ 
क्षमा दे सकू,क्षमा करूँ॰
सुगंध जैसे बिखर जाऊँ 
हर मन के कोना कोना 
क्षमा कर खुद महक जाऊ 
औरों को भी महकाऊँ
क्षमा दूँ ,क्षमा मांग लू 
सरल बनूँ,तरल बनूँ
शिशु सा निश्छल रहूँ
सांस का डोर जब टूटे 
तब मै पश्चाताप से मुक्त रहूँ ।
संगीता.........

Monday, August 26, 2013

विस्तारित प्रेम

स्नेह ,प्यार का रिश्ते हजारों 
कुछ दर्द के रिश्ते,कुछ प्यार के 
फूल सा कोमल, कुछ चुभता शूल . 
प्यार को समेट आँचल में तो 
दर्द को भी भर दामन मेँ 
प्रेम का तू विस्तार कर।

निशा के परे ही दिवस है आता
पतझर के पास ही सदा मधुमास
मूक हो या मुखर ,दर्द सबका बराबर 
विचार ,विवेचना तू मत कर
शूल पर फूल का खुशबू भर दे
प्रेम को तू विस्तृत कर दे ।संगीता ....

Wednesday, August 21, 2013

अनूठा बंधन

अंतिम दिन सावन का
ये अनूठा उपहार 
रक्षा- बंधन का त्योहार 
नाजुक सा डोर ,मजबूत बंधन 
अनोखा सा संबंध 
भाई बहन का प्यार 
बंधन से मन दूर भागे 
पर बंधन में बंधने
भाई पहुंचे बहन के द्वार 
माथे पे तिलक,मुख पे मिठाई
राखी से सजे भाई की कलाई
अनुपम ये त्योहार
पवित्र भाई बहन का प्यार ।संगीता.....

Saturday, July 27, 2013

तुम्हें नहीं परवाह किसी की   
वेपरवाही ओरों की 
आहात किया नहीं 
तुम्हें रिश्ते की परवाह नहीं।
तुम तनहाई मे बहुत खुश हो। 

फिर तुम बहुत नादान हो बंधु 
तुम अपने कोकून से निकलो 
ओरों के साथ कदम ताल से चलो 
लोगों के व्यंग बाण से खुद को तौलो
तुम भावों मे ऊष्मा लाओ 
ओर तुम चोट खा के मुसकाओ ।
तुम न खुदा हो न हैवान 
तुम सिर्फ एक इंसान 
रहना है इन्सानो की बीच न ? संगीता...

Wednesday, July 17, 2013

नित प्रातः इश के ध्यान करती हूँ
मोक्ष के चाहत भी रखती हूँ .
और कदम बढाती हूँ माया की ओर
काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह
के फेरे में हृदय को जख्मी करती हूँ
असत के दल दल में जा
जख्म पर मरहम लगाती हूँ .
पुरानी घाव के दाग सहलाती हूँ .
अपने को बहलाती हूँ .
ममता,प्रेम,करुणा बटोर
अपनों के बिच बाँट आती हूँ .
अपनों के मेले में
रहती बिलकुल अकेली मै.
पर सदा मै मुस्काती हूँ
माया में मै मायावी बन
माया से रिश्ता जोडती हूँ
मै मोक्ष के कामना करती हूँ
मै तो अपने को ही छलती हूं .(संगीता)

Thursday, July 4, 2013

सम्बन्ध

तोड़े कहाँ सम्बन्ध टूटता है
वह सदा अछूता रहता है
दोष दृष्टी के पार
अंतर्व्यथा का रूप ले
ह्रदय में पलता है.

कभी तुलिका में
अपने को परिभाषित करता
अभी गीतों में छंदों
स्व को मुखरित करता
सम्बन्ध कब तोड़े टूटता है

डगर मोड़ लो ,पथ बदल लो
बुद्धि से सौ लगाम कस लो
प्रहरी नियुक्त कर लो
मन से मन का लगाव
यूँ न छुटता है .

Tuesday, June 4, 2013

बिडम्बना


 बिडम्बना

उलझे उलझे सा ये रिश्ता ,
जितना मैं सुलझाते जाऊ
उतने ही उलझ जाऊ

कुछ रिश्ता सर्द सा दीखते हैं
पर बुझे राख में छुपे उष्मा सा
अपनापन दे जाते हैं .

कुछ रिश्ता पथराया सा
पाषण तले छुपे निर्झर सा
शीतलता दे जाते हैं।

बिखरा सा कोई रिश्ता
सरगम के सात सुरों में बंध
मन को झंकृत कर जाता .

समीपता में योजन की दूरता ,
दूरता में भी गूढ़ अंतरंगता
मिलना और बिछड़ना
दूर बहुत दूर अपनों से हो जाना
बीछोह के पीड़ा को व्यक्त न करना
पिघलते नयन नीर को
हिमखंड कर उर में सहेजना ...
बिदा लेना बहुत आसन तो नहीं .

ये कैसी बिडम्बना
अपनों को दुःख में घिरते देखना
चाहते हुए भवरों से न निकल पाना
बेबसी से मुंह फेर लेना
पत्थर ह्रदय को कर लेना '....
जीना बहुत आसन तो नहीं

विरोधाभास सब और
अंतर्मन मूक,तम से व्यथित
बाह्य चराचर मुखर आलोकित
सामंजस्य है कहीं नहीं
राह से रहगुजर का ......
आज कल में ढल समय बदलता ,
पर काल स्वयं कहाँ बदलता है ?

नदी का जल पल, पल बदलता
पर जल स्वयं कहाँ बदलता है ?

शैशव ,योवन ,जरा तन बदलता
पर आत्मा अजर कहाँ बदलता ?

परिवर्तन चक्र यूँ घूमता जाये ,
फिर परिवर्तन से क्यों विचलित

मौलिकता सदा से अपरिवर्तित
'परिवर्तन से यूं हो न व्यथित .(संगीता)
टूटे मन से
आगे बढ़ा नहीं जाता ,
पत्तों को सींच
पौधा बचाया नहीं जाता
बिन संबाद से
सुलह हो नहीं पाता
समस्या से दूर जा
समाधान हो नहीं सकता
जानते सब ,मानते सब
पर कान सीधे हाथ से
हर कोई पकड़ना नहीं चाह्ता ...........sangeeta....
अच्छा लगता है ,
समुन्दर किनारे गीली रेत पर
बिलकुल अकेला बैठना
देखना लहरों का आना और जाना
एक तिनका भी नहीं लेता सागर
धीरे से किनारे ला छोड़ जाता
पर नदी का अथाह जल
प्यार से समेट लेता क्यों?
क्यों की खारा समुन्दर
सरिता की मीठा  जल से
अपने को दूर नहीं रख पाया
आते जाते लहर
किनारों को यही गीत सुनाते .संगीता .......