Tuesday, June 4, 2013

बिडम्बना


 बिडम्बना

उलझे उलझे सा ये रिश्ता ,
जितना मैं सुलझाते जाऊ
उतने ही उलझ जाऊ

कुछ रिश्ता सर्द सा दीखते हैं
पर बुझे राख में छुपे उष्मा सा
अपनापन दे जाते हैं .

कुछ रिश्ता पथराया सा
पाषण तले छुपे निर्झर सा
शीतलता दे जाते हैं।

बिखरा सा कोई रिश्ता
सरगम के सात सुरों में बंध
मन को झंकृत कर जाता .

समीपता में योजन की दूरता ,
दूरता में भी गूढ़ अंतरंगता
मिलना और बिछड़ना
दूर बहुत दूर अपनों से हो जाना
बीछोह के पीड़ा को व्यक्त न करना
पिघलते नयन नीर को
हिमखंड कर उर में सहेजना ...
बिदा लेना बहुत आसन तो नहीं .

ये कैसी बिडम्बना
अपनों को दुःख में घिरते देखना
चाहते हुए भवरों से न निकल पाना
बेबसी से मुंह फेर लेना
पत्थर ह्रदय को कर लेना '....
जीना बहुत आसन तो नहीं

विरोधाभास सब और
अंतर्मन मूक,तम से व्यथित
बाह्य चराचर मुखर आलोकित
सामंजस्य है कहीं नहीं
राह से रहगुजर का ......
आज कल में ढल समय बदलता ,
पर काल स्वयं कहाँ बदलता है ?

नदी का जल पल, पल बदलता
पर जल स्वयं कहाँ बदलता है ?

शैशव ,योवन ,जरा तन बदलता
पर आत्मा अजर कहाँ बदलता ?

परिवर्तन चक्र यूँ घूमता जाये ,
फिर परिवर्तन से क्यों विचलित

मौलिकता सदा से अपरिवर्तित
'परिवर्तन से यूं हो न व्यथित .(संगीता)
टूटे मन से
आगे बढ़ा नहीं जाता ,
पत्तों को सींच
पौधा बचाया नहीं जाता
बिन संबाद से
सुलह हो नहीं पाता
समस्या से दूर जा
समाधान हो नहीं सकता
जानते सब ,मानते सब
पर कान सीधे हाथ से
हर कोई पकड़ना नहीं चाह्ता ...........sangeeta....
अच्छा लगता है ,
समुन्दर किनारे गीली रेत पर
बिलकुल अकेला बैठना
देखना लहरों का आना और जाना
एक तिनका भी नहीं लेता सागर
धीरे से किनारे ला छोड़ जाता
पर नदी का अथाह जल
प्यार से समेट लेता क्यों?
क्यों की खारा समुन्दर
सरिता की मीठा  जल से
अपने को दूर नहीं रख पाया
आते जाते लहर
किनारों को यही गीत सुनाते .संगीता .......