Sunday, September 4, 2016

तुम परम आनंद ,सत चिद आनंद 
मै आनंद के प्रथम छंद 
फिर ये विषाद कैसे है व्याप्त ?
तुम पवित्रता के महासिंधु तो 
मै पवित्रतम बिंदु ,फिर 
पातकता कैसे आविर्भूत ?
तुम सुमेरु निर्गुण ,सगुणों की
मै रेनू उसी सुमेरु की
फिर तुम में ,मुझमें भेद कैसा ?
तुम विद्या के सम्पूर्ण घट तो
मैं हूँ क्षुद्र वर्ण ,लिपि फिर
ये अविद्या मुझे कैसे करे लिप्त ?
तुमसे ही प्रस्फुटित ,पल्लवित
मिथ्या से मै क्यों सिंचित ?
विरोधाभास से मैं क्यों ग्रसित ?
स्वरुप अपने कर दो प्रकट
सम्हाल लो प्रभू अब तो मुझे
हो जाऊं तुम में समाहित sangeeta
स्नेह ,प्यार के रिश्ते हजार
कुछ दर्द के रिश्ते,कुछ प्यार के
फूल सा कोमल, कुछ चुभता शूल .
प्यार को समेट आँचल में तो
दर्द को भी भर दामन मेँ 
प्रेम का तू विस्तार कर।
निशा के परे ही दिवस है आता
पतझर के पास ही सदा मधुमास
मूक हो या मुखर ,दर्द सबका बराबर
विचार ,विवेचना तू मत कर
शूल पर फूल का खुशबू भर दे
प्रेम को तू विस्तृत कर ।संगीता ....