Wednesday, July 17, 2013

नित प्रातः इश के ध्यान करती हूँ
मोक्ष के चाहत भी रखती हूँ .
और कदम बढाती हूँ माया की ओर
काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह
के फेरे में हृदय को जख्मी करती हूँ
असत के दल दल में जा
जख्म पर मरहम लगाती हूँ .
पुरानी घाव के दाग सहलाती हूँ .
अपने को बहलाती हूँ .
ममता,प्रेम,करुणा बटोर
अपनों के बिच बाँट आती हूँ .
अपनों के मेले में
रहती बिलकुल अकेली मै.
पर सदा मै मुस्काती हूँ
माया में मै मायावी बन
माया से रिश्ता जोडती हूँ
मै मोक्ष के कामना करती हूँ
मै तो अपने को ही छलती हूं .(संगीता)

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