Tuesday, June 23, 2015

यात्रा

यात्रा
ये तन समष्टि पंचभूतों की 
ओर उसमे रहता ये चंचल मन
तन सदा गतिमान .
घूमता, इधर उधर 
न जाने किसे ओर क्यों ढूंढता है?
कभी पूरब तो कभी पश्चिम
कभी बीरान मे तन्हा सा
तो कभी भागती लोगों के
साथ बिलकुल अंजान सा ।
कभी धीमे कदम से चलना तो कभी
कभी आकाश का सीमा लांघता
पर यात्रा करते ही जाता..
मन-चंचल लहर सा
चपल शिशु सा ,
फुदकते गौरया सा
बावरा सा बस फिरते ही रहता
पर
ये तन ओर मन के परे .
एक यात्रा सतत चलता रहता है।
अंतर की यात्रा ......
नीरव,निर्बीकार
कोई ब्यवधान से अंजान
गहराई मे ज्ञान के ढूंढता.
सब को ले चलता ये जीवात्मा
कभी उलझता ,स्वयं ही सुलझता
सतत यात्रा उसकी चलता रहता ....संगीता.....30.11 .2014

2 comments:

  1. आपके विचारों का बहाव अध्यात्मविद्या की ओर है। आप अच्छी तरह शब्दों में बयान कर लेते हो।

    ReplyDelete
  2. सच में यह जीवन एक यात्रा ही है .

    ReplyDelete