बिडम्बना
उलझे उलझे सा ये रिश्ता ,जितना मैं सुलझाते जाऊ
उतने ही उलझ जाऊ
कुछ रिश्ता सर्द सा दीखते हैं
पर बुझे राख में छुपे उष्मा सा
अपनापन दे जाते हैं .
कुछ रिश्ता पथराया सा
पाषण तले छुपे निर्झर सा
शीतलता दे जाते हैं।
बिखरा सा कोई रिश्ता
सरगम के सात सुरों में बंध
मन को झंकृत कर जाता .
समीपता में योजन की दूरता ,
दूरता में भी गूढ़ अंतरंगता
No comments:
Post a Comment