तन ओर उसमें मन
रिश्तों के डोर हजार,
खंड खंड मे बिभाजित मन
अपेक्षाएँ सब के भिन्न ,भिन्न।
कब ओर कैसे ?
व्यक्तित्व हो जता परिवर्तित
मानव कब दानव बन जाता है
पहचान खूद को नहीं पाता .
ढलान ये कैसे !
उतार के बाद फिर ऊपर
पहुँच नहीं पाता
मानव को कौन दानव बनाता .
क्या पाने निकलता है
मानवता को ही खो रोता है
साथ चलने को रिश्ते हजार
निभाने के लिए कोई नहीं तैयार
आप की एक एक उपेक्षा के
लेखा जोखा होता पल मे तैयार
मन बार बार पर गिरता,
फिर सम्ह्ल्ता
खंड खंड मे हर रिस्ता को निभाता
फिर आता वो अशुभ पल
मानव हो जाता दानव
दया,करुणा,क्षमा ,सहनशीलता
उस से जाता हो दूर
नयन की तरलता हो जाता विलीन
तन तो मानव ही रहता
मन दानव बन है जीता।संगीता............
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